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दर्शनभ्रष्टो की भयानकता
विचारणा से समझ में आ सकते हैं। प्राश्चर्य और अनाश्चर्य मे थोड़ा-सा ही अन्तर है। जैनदर्शन के आश्चर्य वैसे नहीं, जैसे अजनों के देवो की स्वाभाविक दशा होती है (मत्स्यावतारादि वत्) । किंतु सिद्धांत विहीन, कुतर्क जाल में फंसे हुए लोको. तर वेशधारी, ऐसे लौकिक विद्वानों की दृष्टि मे उनके तर्क ही सब कुछ हैं । उस कुतर्क को वे दृढ़ता से पकड़े हुए हैं।
जिस प्रकार 'परपाषंडी परिचय' त्यागने योग्य है, उसी प्रकार 'परपाषड प्रतिपादक साहित्य' भी त्यागने योग्य है। ऐसे साहित्य को पढ़नेवाले अधिकांश मिथ्यादृष्टि हो गये हैं । जिन साधुओ ने विश्वविद्यालयो की परीक्षा दी, उनमे से बहुत से दर्शन-भ्रष्ट और चारित्र-भ्रप्ट हुए है। उनकी पाठ्य पुस्तकों में सम्यग्ज्ञान युक्त एक भी पुस्तक नहीं होती। सभी पुस्तके उदयभाव को प्रोत्साहन देने वाली होती है । जब से स्थानकवासी समाज के साधु 'परपाषडी ग्रंथो को पढ़कर भाषाविद्, वाक्पटू तथा डिगरीधारी बनने लगे, तब से मिथ्या प्रचार होने लगा। समाज अब भी चेते और असम्यग् साहित्य, अपने साधुओ को नही पढने दे, तो यह बुराई अधिक नहीं फैलेगी । हमारे पूर्वजों ने ढाई हजार वर्ष तक जैनसंस्कृति की विचार शुद्धता को बनाये रखा, किंतु हमने अपने जमाने मे सम्यक्त्व-रत्न की रक्षा नहीं की। हमारे कोई कोई धर्मगुरु और उत्तरदायित्व घराने वाली सस्था, खुलेरूप मे मिथ्यात्व का प्रचार कर समाज को सिद्धान्त विहीन बनावे और हम यह सब चुपचाप होने दे, तो यह हमारे सिर पर कलक है। भविष्य में इतिहास यही बतावेगा कि विक्र