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दर्शनभ्रष्टों की भयानकता
का गुरुत्व लिए हुए होने से एक ही प्रकार की स्थिति मे चिरकाल तक नहीं रह सकते । किंतु सिद्ध भगवान् के शरीर का भारीपन नाम मात्र को भी नही है। वे अशरीरी हैं, अरूपी हैं
और अपनी सहज स्वाभाविक और परम सुखमय स्थिति मे स्थिर हैं । उनके लिए इस प्रकार की खोटी कल्पना (वह भी जैन पण्डित करे) तो उनके जैन नाम को कलंकित करने जैसी ही है । अच्छा होता यदि वे जैनी नही कहलाते । इन पण्डितो का यह तर्क, मिथ्यात्व के उदय का परिणाम तो है ही, किंतु भोडा भी इतना ही है कि जिससे सामान्य समझवाला भी इनके तर्क पर हँसे बिना नही रहे । एक तृप्त और सुखी मनुष्य, सुख शय्या पर आराम से सोया हुआ है । वह सोने मे सुखानुभव कर रहा है। उसे कोई कहे कि 'यह मुर्दे की तरह पडा सड रहा है', और मुर्दे के दुर्गुण की उसमे कल्पना करे, तो उसके जैसा मूर्ख और कौन होगा? इससे भी बदतर दशा है सिद्ध भगवान् के विषय मे उपरोक्त कुतर्क करनेवालो की।
२ जनदर्शन मे आश्चर्यभूत उन्ही बनावों को माना है, जो सामान्य अवस्था मे असम्भव है, किंतु विशेष अवस्थाओ मे वैसे बनाव कभी बनते हैं। जैसे-स्त्री मुक्त तो हो सकती है, परंतु तीर्थंकर नही हो सकती। स्त्री का मुक्त होना आश्चर्यभूत नही माना गया। और मुक्त होने की योग्यता वाली स्त्री ही तीर्थकर हुई है। आश्चर्यभूत उसका तीर्थकर होना ही है। किंतु गधा (मनष्येत्तर प्राणी)तो मुक्त भी नही हो सकता,अहमिन्द्र भी नही हो