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दोष-परपाषड परिचय
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उसे अपनी व दूसरो की सम्यक्त्व निर्मल रखना था । मिथ्यात्व का वह शरीर द्वारा अनुमोदन भी नही करना चाहता था।
कुछ स्वतन्त्र विचारक, अानन्द की इस प्रतिज्ञा को साम्प्रदायिक कट्टरता अथवा अनुदारता या अन्य धर्मियो के प्रति द्वेष-बुद्धि बतलावेगे। किंतु ऐसा आक्षेप करना बुद्धिमत्ता का सूचक नही होगा। प्रत्येक प्रात्मार्थी एव परोपकारी व्यक्ति, बुरी सगति से दूर रहने का उपदेश करते हैं । कुसगति त्याग का उपदेश, हित-बुद्धि से होता है । उसे साम्प्रदायिक कटुता अथवा द्वेष मूलक बताना अज्ञान का परिणाम है । पाषड-परिचय त्याग की हितशिक्षा मे, उस प्राणी को और दूसरो को मिथ्यात्वरूपी बुराई से बचाने का शुभाशय रहा हुआ है। इस लिए श्रमणो को भी अन्य तीथियो और गृहस्थो के साथ रहने,
आहार विहारादि करने का (आचाराग १-८-१) स्पष्ट निषेध किया है । सूयगडाग सूत्र (१-१४) मे स्पष्ट रूप से उदाहरण के साथ लिखा है कि-'जिस प्रकार बिना पंख के पक्षी को मासाहारी पक्षी दबोच लेते हैं, उसी प्रकार धर्म में अनिपुण ध्यक्ति को पाखंडी लोग धर्मभ्रष्ट कर देते हैं।" जब परमार्थ संस्तव के अभाव मे ही जीव, नन्दन मनिहार की तरह सम्यक्त्व को गंवाकर मिथ्यात्वी बन सकता है, तो पाखण्ड-परिचय तो उससे भी अत्यधिक भयंकर खतरा है । हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि जिस समाज मे धर्म-श्रद्धा का अत्यधिक आदर रहा है, निर्ग्रन्थ प्रवचन से किंचित् भी न्यूनाधिक प्ररूपणा को मिथ्या. स्व का कारण माना है, तथा जमाली आदि मामली-सी भूल के