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थी। आदर्श श्रावक श्रीयुत मोतीलालजी सा. मांडोत ने तो अनेक बार आग्रह किया, किंतु मैं टालता रहा । मैं चाहता था कि इस लेखमाला का किसी अधिकारी विद्वान द्वारा अवलोकन होकर संशोधन हो जाने के बाद प्रकाशन होना ठीक होगा । इसी विचार से धकाता रहा, किंतु वैसा सुयोग प्राप्त नहीं हो सका । इधर श्री मांडोत साहब का आग्रह चल ही रहा था । मैने भी सोचा-संशोधन की सुविधा मिलना सरल नही है। प्रतएव प्रकाशन के विचार को मूर्त रूप दिया।
उपरोक्त लेखमाला के अतिरिक्त सम्यग्दर्शन वर्ष १० अंक १० का 'सम्यग्दृष्टि का निर्णय,' वर्ष ११ अंक १७ का 'केवल ज्ञान के समान,' वर्ष ११ अंक ६ से १४ तक की "स्वपर विवेक" लेखमाला, वर्ष १५ से 'सम्यक्त्व संवर' का कुछ अंश और वर्ष १६ अंक ४, ५, १३, १४ और १५ की प्रश्नोत्तरमाला भाग १ के प्रश्नोत्तर भी लिये है। इसके सिवाय 'सम्यक्त्व महिमा' की गाथाएँ और श्लोक, भिन्न अको और अन्य साहित्य मे से संग्रहित कर के दिये हैं। उन लेखो मे उचित संशोधन भी किया है। मैंने अपनी समझ के अनसार इस विषय को निर्दोष बनाने का प्रयत्न किया है, फिर भी मैं अल्पज्ञ हूँ, मुझ से भूलें हुई होगी । यदि कोई महानुभाव भूल सुझाने की कृपा करेगे, तो मैं उनका उपकार मानूंगा।
सम्यक्त्व के विषय मे मैं अल्पज्ञ क्या लिखू । यह कार्य धुरन्धर विद्वानो का है। अधिकारी विद्वान इस विषय मे जितना भी लिखें, थोडा है । चारित्र, विरति और कथा आदि विषयक साहित्य की अपेक्षा, सम्यक्त्व के विषय मे अधिकाधिक प्रयास