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________________ एकत्तरवाँ बोल - ३५३ उत्तर - गौतम ! राग-द्वेष तथा मिथ्यादर्शन को जीतने से, सर्वप्रथम तो जीव ज्ञान दर्शन और चारित्र की श्राराधना मे उद्यमी बनता है, फिर आठ प्रकार के कर्मों की गाठ से मुक्त होने के लिए क्रमपूर्वक अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्मों का क्षय करता है । उसके अनन्तर पाच प्रकार के ज्ञानावरण कर्म नौ प्रकार के दर्शनावरण कर्म और पाच प्रकार के अन्तराय कर्म का एक साथ क्षय करता है । तत्पश्चात श्रेष्ठ, सम्पूर्ण, आवरणरहित, अन्धकाररहित, विशुद्ध और लोक अलोक मे प्रकाशित केवलज्ञान और केवल - दर्शन प्रप्त करता है । केवलज्ञानी और केवलदर्शनी होने के बाद जब तक सयोगी होता है तब तक ईर्यापथिक कर्म बघता है । उस कर्म का स्पर्श सिर्फ दो समय की स्थिति वाला और सुखकर होता है । वह कर्म पहले समय में बंधता है दूसरे समय मे वेदन किया जाता है और तीसरे समय मे नष्ट हो जाता है । व्याख्यान शास्त्र में कहा है- 'रागो य ढोसो वि य क्म्मवीय' श्रर्थात् राग और द्वेष - यह दोनो कर्मबीज हैं । ससार से मुक्त होने के लिए इस कर्मबीज को दग्ध कर देना श्रावश्यक है । द्वेष को जीतना जितना कठिन है, उसकी अपेक्षा राग को जीतना अधिक कठिन है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करने में राग, द्वेष तथा मिथ्यात्व, यह तीनों बाधक हैं । यहा राग द्वेष और मिथ्य त्व को एक साथ बतला कर उनका कार्य कारण सम्बन्ध प्रकट किया गया है । बाह्य दृष्टि से राग द्वेष को जीत लेने से ही यह नही
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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