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________________ सत्तावनवां बोल - २६७ प्रकार होता है इस सम्बन्ध मे एक सुना हुआ दृष्टान्त देकरा समझाता हू सुनते हैं, श्रीपति नामक एक कवि ने निश्चय किया था कि मैं परमात्मा के सिवाय किसी दूसरे का गुणगान नहीं क्रूँगा । वह कवि बादशाह अकबर के दरबार में रहता था । कुछ लोगो को श्रं पति कवि की इस प्रतिज्ञा का पता चला । कवि अपनी प्रतिज्ञा मे कितना दृढ है, इस बात की परीक्षा करने के लिए उन्होने बादशाह से कवि की प्रतिज्ञा की बात कही । बादशाह ने कहा - प्रवसर देखकर कवि की प्रतिज्ञा की परीक्षा करके देखूंगा । एक दिन कवि राजदरबार मे बैठा था । बादशाह ने कवि से कहा- ' कविराज । अ ज एक समस्या की पूर्ति कीजिए ।' श्रीपति कवि बोले- समस्या की पूर्ति करना मेरा काम है, आप समस्या दीजिये। बादशाह ने कहा-करो मिल श्राश श्रकब्बर की । " , इस समस्या की पूर्ति कीजिये । समस्या सुनकर कवि समझ गया कि आज मेरी प्रतिज्ञा की परीक्षा हो रही है । पर हर्ज क्या है ? अगर मैं सच्चा कवि हूं तो समस्या की पूर्ति भी करूँगा और अपनी प्रतिज्ञा का पालन भी करूंगा । इस प्रकार विचार कर कवि ने इस प्रकार समस्यापूर्ति की 17 हरि को यश छाडि श्रौरन को भजे, जिह्वा जो फटो उस लम्बर अब की दुनिया गुनिया को रटे, को, सिर बांधत पोट श्रटम्बर को ।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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