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________________ २४२ - सम्यक्त्वपराक्रम (५) इमं च मे श्रत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च मिमं प्रकिच्चं । त एवमेवं लालप्यमाणं, हरा हरति त्ति कहं पमाए ? उ० १४, १५ अर्थात् - यह मेरा है और यह मेरा नही है, यह मुझे करना है और यह नही करना है, इस प्रकार बडबडाते हुए प्राणी को रात और दिन रूपी चोर (आयु को ) चुरा रहे हैं । ऐसी दशा मे प्रमाद क्यो करना चाहिए ? - इस प्रकार भविष्य के विचार से जो दुख उत्पन्न होता है, वह आर्त्तध्यान का चौथा भेद है । किसी भी साधारण वस्तु के कारण किस प्रकार प्रपच खडा हो जाता है, इस विषय मे एक घटना सुनी है । एक प्रादमी नीलाम मे पलग खरीद लाया । वह पलग कारीगरी का अद्भुत नमूना था । अतएव उस पलंग के कारण उस आदमी के घर साठ हजार का दूसरा सामान खरीदा गया । यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण जान पडती है किन्तु घर मे एक चीज बसाने पर कितना प्रपच और कितना खर्च करना पडता है, इस घटना से यह बात समझी जा सकती है । तुम एक सुन्दर बटनो का सेट खरीदोगे तो बटनो के अनुकूल सुन्दर सिलाई वाले घुले कपडे पहनने की भी आवश्यकता प्रतीत होगी । जब तुम सुन्दर वस्त्रो से सुसज्जित होप्रोगे तो बढिया छतरी और सुन्दर बूट आदि की भी आवश्यकता रहेगी । अब विचार करो कि एक सामान्य चटन के कारण कितना खर्च करना पड़ा ? इसी प्रकार तुम
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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