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तुम भी सकट के समय शान्ति धारण करते हो तुम अ जना का नाम स्मरण करते हो, परन्तु अ जना का नाम स्मरण किसलिए करते हो इसका भी विचार करो और मन को शान्त तथा पवित्र रखने का प्रयत्न करो।।
यहा 'मोरबी) के दीवान साहब कहते थे कि चार महीनो तक व्याख्यान सुनने के बाद भी हम लोग तो जैसे के तैसे ही रहेंगे । क्या दीवान साहब का कथन सही है ? तुम कैसे भी रहो, इस विषय मे मुझे किसी प्रकार का दुर्भाव नही लाना च हिए । मुझे यह भी विचार नहीं करना चाहिए कि मैंने इतना उपदेश दिया मगर परिणाम कुछ भी न आया । मुझे तो यह विचारना चाहिए कि मैं जो कुछ करता ह, अपने कर्मों की निर्जरा करने के लिए ही करता हूं। दूसरा कोई सुघरे या न सुधरे, इस झझट मे मुझे नही पडना चाहिए । इस प्रकार विचार कर मुझे तो ऐसा प्रयत्न करना है कि मेरी आत्मा को सुख-शाति मिले ! शास्त्र मे दो प्रकार के निमित्त कारणं बतलाये हैं पुष्ट और अपुष्ट । जो निमित्त कारण केवल सबध जोडते हैं वे पुष्ट कहलाते हैं और जो सम्बन्ध जोडते भी है और तोडते भी हैं, वे अपुष्ट निमित्तकारण कहलाते हैं । पुष्ट निमित्तकारण सबध जोडता है, तोडता नही है । जैसे फूल तेल को फुलेल तो बना देता है मगर उसके चिकनेपन को नष्ट नहीं करता । अत तेल फुलेल होने पर भी पहले की भाति जल सकता है । अपुष्ट कारण चाक को घुमाने वाले डडे के समान होता है । वह घडा बनाता भी है और घड़े को नष्ट भी कर सकता है ।
साधु दूसरो के दिल को जोडने वाला होना चाहिए,