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१०० - सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ )
का कल्याण करने का काम साधुओ के हाथ मे है । परन्तु साधुओ का सुधार करने के लिए श्रावको को भी अपना सुधार करना पडेगा । जब तक श्रावक स्वय नही सुधरेगे तब तक साधुओ पर उनकी छाप नही पडेगी जनसमाज का कल्याण करना सरल काम नही है । इसके लिए साधुग्रो को सुधरना पडेगा और साधुओ का सुधार करने के लिए सर्वप्रथम श्रावको को सुधरना होगा । सक्षेप मे, जीवनमुधार करने मे ही सब का कल्याण है । अतएव प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का सुधार करके अपना और पराया कल्याण करे, यही मेरी मगलकामना है ।
भगवान् ने कहा है प्रतिरूपता से अर्थात् स्थविर - कल्पी का आदर्श वेप धारण करने से जाव मे हल्कापन - लघुता आ जाती है । आत्मा उपाधि से अपने - श्रापको शक्तिशाली मानता है, परन्तु ज्ञानीजनो का कथन है कि उपाधि से आत्मा शक्तिशाली नही होता वरन् भारी बनता है | जीवात्मा जव प्रतिरूपता धारण करता है तब उसमे लघुता आ जाती है और उसका भारीपन मिट जाता है । इसी कारण चक्रवर्ती राजाओ ने छह खण्ड का राज्य छोडकर और वन्नाशालिभद्र जैसे ऋद्धिशालियो ने अपनी ऋद्धि का त्याग करके इस साधुवेष को अपनाया था । माधुवेष धारण करने से आत्मा मे लघुता आने के कारण ही समृद्ध लोग अपनी ऋद्धि-सिद्धि का त्याग किया करते थे ।
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साधुवेष मे ऐसा क्या चमत्कार है ? यह बात अगर तुम लोग भलीभांति न समझ सको तो कम से कम इतना तो अवश्य मानो कि 'महाजनो येन गत सा पन्था ।' अर्थात् महान् पुरुष जिस मार्ग पर चले हैं, उसी सन्मार्ग पर हमे