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________________ ७०-सम्यक्त्वपराक्रम (३) व्याख्यान तप के फल के विषय मे विचार करने से पहले तप क्या है, इस बात का विचार करना आवश्यक है। तप शब्द 'तप् सतापने' धातु से बना है । जो तपाता है उसे तप कहते हैं । यह तप गब्द का व्युत्पत्ति अर्थ है । मगर कोरे व्युत्पत्ति-अर्थ को जान लेने से वस्तु समझ में नहीं आ सकती। वास्तविकता समझने के लिए प्रवृत्ति निमित्त को भी समझना चाहिए । 'जो तपाता है वह तप है। इस अर्थ के अनुसार तो अग्नि भी तप व हलाती है, क्योकि वह भी तपाती है । अतएव यहा देखना है कि तप का प्रवृत्तिनिमत्त क्या है ? प्रवृत्तिनिमित्त के लिए शास्त्र में कहा है - कर्मो का क्षय करने के लिए आत्मा को तपाना तप है। कर्मों के क्षय के अतिरिक्त अन्य किसी भी सासारिक कार्य के लिए किये जाने वाले तप की गणना इस तप मे नही हो सकती। यहा सिर्फ उसी तप से अभिप्राय है जो कर्मों को नष्ट करने के उद्देश्य से किया जाता है। कर्मों को भस्म करने के लिए आत्मा को तप'ना तप का वास्तविक अर्थ है, पर समुच्चय रूप से इस प्रकार कह देने पर भी तप का अर्थ समझ मे नही आ सकता । इस कारण शास्त्रकारो ने तप के छह आन्तरिक भेद और छह वाह्य भेद किये हैं। कुल वारह प्रकार का तप है। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावत्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग, यह तप के आभ्यान्तर छह भेद हैं तथा अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसलीनता, यह छह बाह्य तप के भेद हैं। आज तप के अर्थ मे प्रायः अनशन ही समझा जाता
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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