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६६-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
के कारण ही ससार मे दुख व्याप रहा है । धन को साध्य मानने के बदले साधन माना जाये और लोकहित मे उसका सद्व्यय किया जाये तो कहा जा सकता है कि धन का सदुपयोग हुआ है । इसके बदले आप साधनसम्पन्न होने पर भी यदि किसी वस्त्रविहीन को ठण्ड से ठिठरता देखकर भी और भूख-प्यास से कष्ट पाते देखकर भी उसकी सहायता नहीं करते तो इससे आपकी कृपणता ही प्रकट होती है । धन का सदुपयोग करने मे हृदय की उदारता होना आवश्यक है । हृदय की उदारता के अभाव मे धन का सद्व्यय नही हो सकता। धन तो व्यवहार का साधन मात्र है। वह साध्य नही है । यह बात सब को सर्वदा स्मरण रखनी चाहिए । धन के प्रति जो मोह है उसका त्याग करने मे ही कल्याण है। 'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते' अर्थात् धन प्रमादी पुरुप की रक्षा नही कर सकता । शास्त्र के इस कथन को भलीभाति समझ लेने वाला धन को कदापि साध्य नही सम. झेगा । वह धन के प्रति ममत्व का भाव भी नही रखेगा। धन के प्रति इस प्रकार निर्मल बनने वाला भाग्यवान् पुरुष ही सयम के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है ।
धन की भाति शरीर को भी साधन ही समझना चाहिए । शरीर को आप अपना मानते है, मगर क्या हमेशा के लिए यह प्रापका है ? अगर नही, तो फिर यह आपका कैसे हुआ ? श्रीभगवतीसूत्र में कहा है - कर्मो का बन्ध न अकेले आत्मा से होता है और न अकेले शरीर से ही होता है । अगर अकेले शरीर से कर्म वन्ध होता तो उसका फल आत्मा क्यो भोगता? अगर अकेले आत्मा से वन्ध होता तो