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________________ २०६-सम्यक्त्वपराक्रम (३) बुद्धिमत्ता नही है । एक किसान खेती करता है और वीज का आरोपण करता है, जब कि दूसरा किसान खेती करना है किन्तु बीज नष्ट हो जाने के भय से बीज ही नही बोता! इन दोनो मे से तुम किसे ठोक कहोगे ? इसी प्रकार एक प्रादमी दान में विवेक रखता है मगर दान देता है और दूसरा, दान लेने वाला जो पापकर्म करेगा वह पापकर्म मुझे लगेगा, इस भय से दान ही नहीं देता। इन दोनो मनुप्यों मे से वही मनुष्य अच्छा कहलाएगा जो दान देता है। दान ही न देना तो वीज ही न बोने के समान है । अतएव विवेकपूर्वक दान तो अवश्य देना चाहिए । पाप के भय से दान ही न देना अनुचित है । सुना है, अमेरिका मे एक बार दो मित्र जा रहे थे । रास्ते में एक लगडा मनुष्य बैठा दिखाई दिया। दोनो मित्रों मे से एक को उस लगडे पर दया आई और उसने अपने जेब से कुछ रुपये निकाल कर उसे दे दिये । यह देखकर दसरे ने कहा - तुमने इस अपग मनुष्य को रुपये तो दिये मगर इससे उसका भिखारीपन दूर नहीं हुआ । रहा तो भिखारी का भिखारी ही । तुम्हारा यह दान करुणादान तो अवश्य है पर उसे ऐसा दान देना चाहिए कि उसका भिखारीपन ही मिट जाये और वास्तव मे ऐसा दान करना ही श्रेष्ठ दान है। इस प्रकार कहकर वह दूसरा मित्र उस अपग को अपने घर ले गया। वहा उसने उसे हुनर-उद्योग सिखाया और लकडी तथा रवर के कृत्रिम पर बनाकर उसके पैर दुरुस्त कर दिये । वह अपग हुनर उद्योग के द्वारा अपना और दसरो का भी पोपण करने में समर्थ बन सका । दान तो दोनो मित्रो ने दिया, परन्तु किस मित्र का दान सच्चा
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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