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________________ तेतीसवां बोल-१६१ बीमारी उत्पन्न होती है तो बडी ही कठिनाई उपस्थित होती है । क्योंकि जिनकल्पी होने के बाद बीमारी. मिटाने के लिए दवा भी नही ली जा सकती। माता के इस कथन के उत्तर में मृगापुत्र ने कहाहे माता । ऐसा दुख आलम्बन लेने वाले को ही होता है। जो आलम्बन का त्याग कर चुकता है उसे दु ख का अनुभव नही होता । मैं राजपुत्र हू, इस कारण- मेरी चिकित्सा हो सकती है, परन्तु ससार मे ऐसे अनेक प्राणी हैं जिनकी बीमारी दूर करने के लिए दवा ही नही की जाती। वन में रहने वाले मृगो को जब बीमारी होती है तो वे वन मे क्या करते हैं ? वे मृग एकान्त में किसी वृक्ष के नीचे बैठ, जाते हैं और जब तक रोग ज्ञात नही हो जाता तब तक वही वैठे रहते हैं । रोग शात हो जाने पर वे स्वय उठकर चरने चले जाते हैं। उन मृगो को यह आशा ही नही होती कि कोई आकर हमारी सेवा करेगा और यह आशा न रखने के कारण उन्हे किसी प्रकार का दुख नही होता । मैं भी उन मृगो के समान निरालम्बी रहूगा और निरालम्बी रहने के कारण व्याधि उत्पन्न होने पर भी मुझे भी दुःख नहीं होगा । इस प्रकार सभोग का त्याग करने से साधु निरालम्ब बनता है । निरालम्ब बनने का अर्थ ही सभोग का त्याग करना है । ऐसा नहीं होना चाहिए कि सभोग का त्याग करने वाला, साधुओ का आलम्बन तो न लेवे और उसके बदले गृहस्थो का आलम्बन ले और उनसे अपनी मेवा करावे। कहा जा सकता है कि गृहस्थो का पालम्वन लिए बिना
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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