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१६०-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
साधु को, ऐसे अवसर पर सभोग का त्याग क्यो करना पड़ता है, यह बात एक उदाहरण द्वारा समझाता हू --
कल्पना करो, एक मनुष्य व्याज-बट्टे का घधा करता है । उसने अधिक लाभ की इच्छा से अपना धन्धा बन्द करके जवाहरात का व्यापार करने का विचार किया । व्याज-बट्टे के धन्धे मे उसे लाभ तो होता था, परन्तु उत्कृष्ट लाभ प्राप्त करने के लिए उसे व्याज का धन्धा व द करना आवश्यक हो गया । इसी प्रकार जब कोई उच्च श्रेणी का लाभ होता हो तभी सभोग का त्याग किया जाता है । सभोग का त्याग करने का अर्थ यह नहीं है कि सभोग मे ही रहना बुरा है । साधारण रूप से तो साप को सभोग मे ही रहना चाहिए, परन्तु अगर अपने मे विशिष्ट शक्ति हो और उत्कृष्ट लाभ पाना हो तो मभोग का त्याग करना लाभप्रद है।
सभोग का त्याग करने से जीव को क्या लाभ होता है, यह प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा है । इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं-- मभोग का- त्याग करने से जीव आलम्बन रहित वनता है । साधु जब सभोग मे रहता है तो अन्य सानो का सहारा रहता है । वह सोचता है
मैं बीमार हो जाऊँगा तो जिन साधुओ के साथ मैं सभोग करता हू, वे साघु मेरी सेवा करेगे ।' सभोग का त्याग कर देने से उसे इस प्रकार का आलम्बन नहीं रह जाता ।
मृगापुत्र की माता ने मृगापुत्र से कहा था - हे पुन । तू दीक्षा तो लेता है, मगर दीक्षा के बाद 'दुक्ख निप्पडि. कम्मया' अर्थात-जिनकल्पी आदि दगा प्राप्त होने के पश्चात् जब