SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसवां बोल-१५३ वही क्रिया अगर कच्चे सोने को शुद्ध करने के लिए की जाये . तो मिट्टी मिला हुआ सोना भी शुद्ध सोने के समान ही हो जायगा । बचपन मे एक धूलधोया के लडके के साथ मेरी मित्रता थी । मैं कई बार उसके घर जाता था। उसके घर जाने से मुझे मालूम हुआ कि धूल मे से सिर्फ सोना ही नही निकलता, सोने के अतिरिक्त और धातुएँ भी निकलती है। वे लोग अपनी वशपरम्परागत क्रिया द्वारा उन धातुओ को अलग-अलग कर डालते है। इसी प्रकार जीव आज कर्मबधन से बद्ध है । परन्तु उसे अगर कर्म रहित बना लिया जाये तो जीव मे और शिव अर्थात् सिद्ध मे कुछ भी अन्तर नहीं रहता । अतएव सिद्धो का स्वरूप समझ कर अपना स्वरूप पहचानो और सिद्ध बनने का प्रयत्न करो इस सम्बन्ध में एक महात्मा ने कहा है : अजकुलगत केसरी लहे रे, निजपद सिंह निहार, तिम प्रभु भकते भवी लहे रे, आत्मस्वरूप संभार, अजित जिन तारजो रे ॥ इस पद मे एक दृष्टान्त देकर बतलाया गया है कि प्रात्मा किस प्रकार अपना स्वरूप भूल गया है और किस प्रकार अपने स्वरूप को जान सकता है । इस दृष्टान्त में कहा है- एक सिंहनी बच्चे को जन्म देते ही मर गई । बच्चा छोटा था और निराश्रित था। जगल मे चरता-चरता वह भेडो के झुड मे मिल गया । बच्चा किसी का क्यो न हो, मगर उसे सभी प्यार करते हैं, क्योकि बालक निर्दोष होता है । सिंह का वह बच्चा भी भेडो को प्रिय लगने लगा । भेड़ो का मालिक सोचने लगा कि भेड़ो के साथ
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy