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________________ तीसवां बोल-१४६ रूप देख कर ही उस पर गिरता है और अपने प्राणो की आहुति दे देता है । इस प्रकार मछली और पतग तो अनजान मे ही विषयभोग मे फंसते हैं परन्तु मैं तो जान-बूझ कर विषयभोग मे फँस जाता है और इस कारण मैं उनको अपेक्षा अधिक मूर्ख हू । मैं जानता हू कि विषयभोग हानिकारक है, फिर भी मैं विषयभोगो मे प्रवृत्ति करता है । अतएव दीपक लेकर कूप में गिरने व ला मुझ-सा मुर्ख और कौन होगा। विषयसुख मे अनेक हानिया है और इसी कारण भगवान् कहते हैं - नि सग वनो।' यह बात कहने मे तो बहुत छोटी है और सरल है किन्तु उसका आचरण करना बहुत कठिन है । कहने और करने मे बहुत अन्तर होता है । अतएव अप्रतिबद्ध और नि संग बनने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता है अगर ठीक प्रयत्न किया तो आदर्श तक पहुचा जा सकता है । तुम्हारे पूर्वज तुम्हारे लिए जो उच्च आदर्श उपस्थित कर गये हैं, उसी आदर्श का अनुसरण करो। मगर आजकल तो गौराग गुरुओ के सग से ऐसा समझा जाने लगा है कि मानो पूर्वजो मे बुद्धि ही नही थी और वे मूर्ख ही थे । तुम्हारे पूर्वजो की ओर से तुम्हारे लिए त्याग का जो आदर्श रखा गया है वह अन्यत्र मिलना अत्यन्त कठिन है। लेकिन तुम आदर्श की ओर ध्यान नही देते और इधर-उधर भटकते फिरते हो। तुम आध्यात्मिक कार्यों मे गति ही नही करते । सिर्फ आधिभौतिक कामो में फंसे रहते हो। यद्यपि गहस्थ होने के कारण तुम्हे आधिभौतिक कार्यों की सहायता
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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