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________________ ७६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) बन गया है कि आप इसकी ओर देखना भी नहीं चाहती । माता बोली - बेटा, तुम्हारा असली शत्रु तो अभी तक जीवित है । जब तक उसे न जीत लिया जाये, तव तक मुझे प्रसन्नता कैसे हो सकती है? पुत्र ने कहा- आपका कहना सच है । मगर वह है कौन जो मेरा सच्चा शत्र है ? माता-पिता का घात करने वाले से बड़ा शत्रु और कौन हो सकता है ? पुत्र-सचमुच, ऐसा घोर कृत्य करने वाला महान् अपराधी है। आप बतलाइये कि कौन मेरे पिता का घातक है ? माता ने नाम बतला दिया। पुत्र ने कहा-ऐसा था तो आपने अभी तक मुझसे कहा क्यो नही ? माता - जहाँ तक तुम्हारा पराक्रम पूर्णरूप से विकसित नही हुआ था, तब तक तुम्हे शत्रु कैसे बतलाती? । पुत्र- ठीक है। मैं जाता हूं और शत्र को वश में कर लाता है । जब तक मैं उसे वश मे न कर लूंगा, अन्नजल ग्रहण नहीं करूंगा।। पुत्र अपने पिता के घातक के पास जाने को उद्यत हुया । उस घातक को भी पता चल गया कि वह मुझे मारने आ रहा है । उसने सोचा-वह वीर है और क्रुद्ध होकर आ रहा है । ऐसी हालत मे मुझे मार डाले बिना नहीं रहेगा। इस प्रकार विचार कर वह क्षत्रियपुत्र के सामने आया और उमके पैरो मे पड गया। क्षत्रियकुमार ने कहात मेरा शत्र है, क्यो मेरे पैरो मे पडता है ? वह क्षत्रिय
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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