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७४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) पाप न देखकर दूसरो की बातो मे क्यो पडता है ? तेरे पात्र मे मलीन जल भरा है, उसे तो तू साफ नहीं करता और दूसरो से कहता फिरता है कि लाओ, मैं तुम्हारा पानी साफ कर दू ! यह कथन क्या युक्तिसगत कहा जा सकता है ? भक्तजन सबसे पहले अपने पर ही विचार करते है, अतएव वह कहते हैं
मो सम पतित न और गुसाई । अवगुण मोसो अजहँ न छूटे, भली तजी अब ताई । मोह्यो जेही कनक-कामिनी, ते ममता मोह बढाई ।। रसना स्वाद मीन ज्यो उलझी सुलझत नहिं सुलझाई।
मो सम पनित न और गुसाई ॥ अर्थात् - प्रभो ! मुझसा पतित और कौन होगा? मैं गुणो का त्याग कर देता हू पर अवगुणों का तो आज तक त्याग नहीं किया।
जिसमें भक्तजनो के समान ऐसी भावना होगी, वह अपने पाप अवश्य नष्ट कर डालेगा । वास्तव मे जो इस उच्च भावना का धनी है वह बडा भाग्यशाली है । शास्त्रकार ऐसे भाग्यशाली को इसीलिए कहते है कि पुरस्कारभावना से निकलकर अपुरस्कारभावना मे आने के लिए गहीं करो और गर्दा करके अपुरस्कारभावना मे आओ।
भक्तजनो का कथन है-हे प्रभो । मैं भलीभाति जानता हूं कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र अथवा साधुअवस्था हितकर है और क्रोध आदि विकार अहितकर है। फिर भी मैं साघुपन अगीकार नहीं करता और क्रोध करता