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________________ छठा बोल-६५ युधिष्ठिर का यह स्पष्टीकरण सुनकर द्रौपदी कहने लगी-आपने यह तो नवीन ही बात सुनाई | आपके दूसरी बार जूआ खेलने का मतलब तो मैं समझ गई। लेकिन एक दूसरी बात में पूछना चाहती है । वह यह है कि जब गन्धर्व ने दुर्योधन को कैद कर लिया था तब आपने उसे छुडाने के लिए भीम और अर्जुन को क्यो भेजा था? युधिष्ठिर उत्तर देते हुए कहने लगे - देवी ! मैं जिस कुल मे उत्पन्न हुआ हू उसो कुल के मनुष्य को, जिस वन मे मैं रहता है उसी वन मे मार डाला जाये, यह मैं कैसे देख सकता हूं। तुम पीछे आई हो, लेकिन कुल के सस्कार मुझमे तो पहले से ही विद्यमान है। हम और कौरव आपस मे भले ही लड मरे, मगर हमारा भाई दूसरे के हाथ से मार खाये और हम चुपचाप बैठे देखें, यह नही हो सकता। इसी कारण दुर्योधन को गन्धर्व के सिकजे मैं से छुड़ाने का मुझे कोई पश्चात्ताप नही है । उलटा इससे मुझे आनन्द है। दयाभाव से प्रेरित होकर मैंने दुर्योधन को शत्रु के पजे से छुडाया है। धर्मराज का यह कथन सुनकर द्रौपदी कहने लगीआप इस समय जो कष्ट भोग रहे है, वह सब इसी दया का परिणाम है न? आपने उसे बचाया मगर वह दुष्ट आपका उपकार मानता है ? अजी, वह तो उलटा हमें कष्ट देने का ही प्रयत्न करता है। युधिष्ठिर- देवी। हम लोग जब वन मे चलते है तो अपने पैर के नीचे फूल भी आ जाते हैं। यद्यपि उसे पैर से कुचलकर हम उसका अपराध करते हैं तथापि वह अपना स्वभाव नही छोडता । जब फूल भी अपना स्वाभाव नही
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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