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________________ ३६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) तो इसमे शास्त्र का क्या दोप है ? कोई पुरुष ऊपर मे पविबता का ढोग करता है और भीतर पापो को छिपाता या दवाता है तो इसमें शास्त्र का क्या अपराध है ? पूज्य श्री श्रीलाल जी महाराज कई बार कहा करते थे कि आजकल माधुओ मे यह खरावी घुस गई है कि वे ऊपर से तो साफ रहते है मगर भीतर पोल चलाते हैं। इस पद्धति से साधुओ की तथा समाज की बहुत हानि हुई है। आज भी यही देखा जाता है कि कतिपय साघु ऊपर से तो साधुता का सुन्दर स्वाग रचते है मगर भीतर पोल चलाते रहते है । देशनेताओ, समाजसेवको और जातिसेवको में भी कुछ लोग ऐसे देखे जाते है जो बाहर कुछ प्रकट करते हैं और भीतर कुछ और ही करते है । आज तो धममाग मे भी यहा होने लगा है । जिस काल मे ऐसा अन्धेर होता है, शास्त्रकार उसे विषमकाल कहते है । ऐसा कोई काल नही है, जिसमें पाप न होते हो, मगर जिस काल में पापो को छिपाने का प्रयत्न नही किया जाता, पाप होने पर प्रकट कर दिये जाते हैं और उनके परित्याग की भावना रहती है उस काल मे चाहे जितने पाप हो फिर भी वह कल्याण का ही काल कहलाता है । अपराव इसी काल में होते है, ऐसी कोई बात नहीं हैं। पहले भी अपराध होते थे । किन्तु वर्तमानकाल और भूतकाल में अन्तर यह है कि भूनकाल मे अपराध, अपराध समझे जाते थे और उन्हे छिपाया नही जाता था, जब कि वर्तमान काल मे अपराधो को प्रकट करने की पद्धति वहत ही कम दिखाई देती है और पापो एव अपराधो को पाप एव अपराध मानने वाले लोग भी बहुत कम नजर आते हैं।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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