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________________ २८-सम्यक्त्वपराक्रम (२) यो भव रतन चिन्तामणि सरखो, बारम्बार न मिलसो रे, चेत सके तो चेत रे जीवडा, एवो जोग न मिलसी रे ।। ___अर्थात् बाहर और भीतर समता धारण करो । बाहर से तो किसी अन्य अभिप्राय से समता का प्रदर्शन किया जा सकता है लेकिन भीतर समता रखना अत्यन्त ही कठिन है। हम साधु अगर बाहरी समता न रखकर किसी से लडे तो तुम्ही हमे उपालम्भ देने लगोगे । अतएव बाह्य समता तो हमे रखनो ही चाहिए । मगर जैसी समता बाहर रखी जाती है, उसी प्रकार भीतर भी होनी चाहिए । सच्ची समता वही है जो बाहर और भीतर एकसी हो । जो पुरुप बाहर की भाति भीतर भी समता रखता है, वही सच्चा वीर है, दस लाख योद्धाओ को जीतने वाले वीर की अपेक्षा भी आन्तरिक समता धारण करने वाला और सच्चो आलोचना करने वाला बडा वीर है । आलोचना किसके समक्ष करनी चाहिए, यह भी जान लेना आवश्यक है । आलोचना एक चौकन्नी कही गई है, एक छकन्नी कही गई है और विशेष प्रसग उपस्थित होने पर आठकन्नी भी कही गई है । आठकन्नी से अधिक का विधान शास्त्र मे कही नही मिलता । चौकन्नी आलोचना वह है जिसमे दो कान आलोचना करने वाले के हो और दो कान आलोचना सुनने वाले के हो । जब कोई पुरुष, आचार्य के समक्ष आलोचना करता है तो दो कान उसके अपने होते हैं और दो कान पाचाय के होते है । जब आलो-. चना करने वाली कोई स्त्री हो तो दो कान उस स्त्री के, दो कान आचार्य के और दो कान उस साध्वी के होते हैं जो आलोचना कराने के लिए स्त्री को साथ लाती है । यह
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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