________________
अठारहवां बोल-२४३
आप भी व्याख्यान सुनते हैं, मगर व्याख्यान सुनकर जो वस्तु लाभप्रद प्रतीत हो उसे अपनाने में ही व्याख्यान सुनने की सार्थकता है और तभी व्याख्यानश्रवण स्वाध्याय रूप कहा जा सकता है। व्याख्यान सुनकर वाह-वाह करने मे ही रह गये और जीवन मे कुछ भी न अपनाया तो व्याख्यान सुनने से क्या लाभ है ?
कल्पना कीजिए, आपके पूर्वजो ने आपके घर में सम्पत्ति गाड़ रखी है । यह बात आपको मालूम है, लेकिन आवश्यकता के अवसर पर भी वह आपके हाथ नहीं लगती। इतने में कोई सिद्ध-योगी आकर आपकी सम्पत्ति आपको बतला दे तो आपको कितनी प्रसन्नता होगी? इसी प्रकार इस शरीर मे अनन्त गुणो वाला आत्मा विराजमान है । अगर कोई इस आत्मा का दर्शन आपको करा दे तो क्या प्रापको प्रसन्नता नहीं होगी ? स्वाध्याय करने से ज्ञानावरण कर्म नष्ट होता है और ज्ञानावरण के नाश से आत्मा का दर्शन हो सकता है । अतएव स्वाध्याय द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म का नाश करके आत्मा का दर्शन करो । ज्ञानीजन कहते हैं- आत्मा अनन्त गुण वाला और अनन्त शक्ति से सम्पन्न है । आत्मा के गुण इस मानव शरीर द्वारा ही प्रकट किये जा सकते हैं। आपको पुण्ययोग से मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है, इसलिए आत्मा के उन गुणो को एव शक्तियो को प्रकट करने का प्रयत्न करो । केवल शरीर देखकर ही न रह जाओ। सुना है, अमेरिका मे, मनुष्य की आकृति की मछली भी होती है, मगर आप मनुष्य है, मछली नही हैं । यह बात तो तभी प्रतीत होगी जब आप अपने जीवन में मनुष्यता प्रकट करेगे । जीवन मे मनुप्यता प्रकट करने के