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________________ २३२-सम्यक्त्वपराक्रम (२) पौपध करूँगा ।' उदायन ने कहा--'आपने पहले कभी पौषध नही किया है, अत कष्ट होगा । बलात्कार से किसी से धर्म करवाना धर्म नही कहा जा सकता । इसलिए पौषध करने के विषय मे अच्छी तरह विचार करलो ।' चडप्रद्योत बोला- आप पौषध करेगे और मैं नही कर सकगा? नही, मैं भी आपके साथ पौषध करूँगा।' उदायन ने कहा- 'तो जैसी आपकी इच्छा ।' उदायन और चडप्रद्योत ने एक ही जगह और एक ही विधि से पौषध व्रत अगीकार किया, मगर दोनो के भाव जुदा-जुदा थे । सध्या समय उदायन ने प्रतिक्रमण किया और समस्त जीवो से क्षमायाचना की।' चडप्रद्योत ने भी इसी प्रकार किया । जब उदायन ने सब जीवो के प्रति क्षमायाचना की तब चडप्रद्योत पास ही था । उदायन ने उससे कहा-'ससार बहुत विषम है और यहा साधारण वात में भी क्लेश हो जाता है । तुम्हारे साथ जो युद्ध हुआ वह भी साधारण सी बात के लिए ही था । मैं हृदय से चाहता था कि किसी प्रकार युद्ध टल जाये, लेकिन तुमने जो उत्तर दिया, उसने राजकर्तव्य की रक्षा के लिए मुझे युद्ध करने के लिए विवश कर दिया मेरे लिए क्षत्रियधर्म और राजनीति का पालन करना आवश्यक था और इसी कारण तुम्हारे साथ युद्ध करना पड़ा और तुम्हे कष्ट देना पड़ा। ससार सम्बन्धी प्रपच के कारण ही तुम्हे कष्ट देना पडा, लेकिन उस कष्ट के लिए अव मैं क्षमायाचना करता हूं।' अगर अपराध था तो चडप्रद्योत का ही था, फिर भी उदायन ने उसके लिए क्षमा मागी । जैनधर्म कहता है-त अपना अपराध देख, दूसरो का मत देख । अगर त
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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