SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तरहवां बोल-२२७ तक वह आहार -पानी के लिए कही नही जा सकते, इतना ही नही, पर स्वाध्याय भी नही कर सकते । गौच जाना आवश्यक माना गया है लेकिन क्षमापणा किये बिना साधु शौच भी नही जा सकते । सब से पहले अपने आत्मा में दूसरों की तरफ से असमाधि उत्पन्न हुई हो उसे दूर करो फिर भले ही दूसरा काम करो । जब तक असमावि दूर न हो, दूसरा कोई काम मत करो । तुम्हारे घर में आग लगी हो तो पहले आग बुझाने का प्रयत्न करोगे या कहोगे कि पहले भोजन कर लें और फिर आग बुझाते रहेगे ? तुम तत्काल सब काम छोड़कर पहले आग बुझाने का ही प्रयत्न करोगे । इसी प्रकार शास्त्र कहता है हे साधुओ। तुम्हारे अन्तःकरण मे जो भाव-अग्नि लग रही है, उसे सब से पहले शान्त करो । उसके बाद दूसरे काम करो। कदाचित् कोई कहे कि मैं तो अमुक को खमाता हू पर वह मुझे क्षमा नहीं देता, ऐसी स्थिति में मैं क्या करूँ? इस प्रश्न के उत्तर मे शास्त्र कहता है भिक्खू य अहिगरणं कट्ट तं अहिगरणं विवसमित्ता विप्रोसइयपाहुडे इच्छा य परो पाढाइज्जा इच्छा य परोन प्राडाइज्जा, इच्छा य परो अब्भुट्ठज्जा, इच्छा य परो न अभट्ठज्जा, इच्छा य परो वदेज्जा, इच्छा य परो न वंदेज्जा इच्छा ये परी संभुंज्जेज्जा, इच्छा य परो न संभुज्जेज्जा, इच्छा य परो संवसिज्जा, इच्छा य परो न संवसिज्जा, इच्छा य परो उवसमिज्जा, इच्छा य परो न उवसमिज्जा । जो उवसम्मइ तस्स अस्थि पाराहणा, जो न उवसम्मइ नत्यि तस्म
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy