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________________ २२६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) देता दे जाना, नही तो तुम्हारी इच्छा ! तुम्हारे प्रति अब मेरे अन्तःकरण मे किसी प्रकार का वैरभाव नही है । अब तुम्हारे ऊपर मेरा मैत्रीभाव है । सच्चा सम्यग्दष्टि ऐसी क्षमापणा करता है। तुम' गृहस्थ ठहरे । तुम्हारी आपस में खटपट हो जाना स्वाभाविक है । मगर कभी-कभी हम साधुओ मे भी खटपट हो जाती है। जहा दो चूडियां होगी, आवाज होगी ही । इस कथन के अनुसार साधुओ में भी परस्पर खटपट हो जाती है । मगर साधुओ के लिए शास्त्र कहता है कि अगर किसी के साथ तुम्हारी खटपट हो गई हो तो जब तक उससे क्षमा न मांग लो तब तक दूसरा काम मत करो। इसके लिए शास्त्र में कहा है भिक्खाय अहिगरणं कठ्ठ अबि प्रोस्मिता (?)नो से कप्पई ग्राहावई कुलं भत्ताय पाणाय वा निक्खमित्तए वा पवि सित्तए वा बहिया विहारभूमि वा अविहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । इस सूत्रपाठ का भावार्थ यह है कि अगर साधुओ मे पापस मे अनबन हो गई हो तो, हे साधुओ ! पहले उस अनवन को दूर कर क्षमापणा करो । जहा तक तुम अपना अपराध क्षमा न करवा लो तहा तक किसी के घर आहार पानी लेते न जाओ, शौचादि मत जाओ और न स्वाध्याय भी करो। इस प्रकार शास्त्र की आज्ञा है कि अगर साधुओ मे आपस में किसी तरह की अनवन हो गई हो तो उसी समय खमा लेना चाहिए । जब तक साधु क्षमापणा न करले तव
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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