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चौदहवां बोल-१६७
और कषायो का दमन करने के लिए अनेक प्रकार से सवर धारण करता है। तथा समभाव और ज्ञानादि उत्पन्न करने वाली समाधि को धारण करके वह गातिरूप और जानादिरूप समाधि से समाधिवान् बनता है और वह शरीर एव मन से रूक्षवृत्ति वाला बनता है अर्थात् किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रखता । वह कर्मों को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील तथा सतत जागृत रहता है। इस प्रकार ससारसमुद्र को पार करता हुआ वह किनारे पहुचता है और तप मे उद्यत होकर दु ख का नाश करता है। वह शुभध्यानरूप तप का तपस्वी होने के कारण तपस्वी कहलाता है । ऐसे तपस्वी पुरुष का तप सतापजनक घोर नही होता । उसे देवादि का भी उपसर्ग नही होता । लघुकर्मी होने के कारण वह पुरुष दीर्घकाल तक दीक्षा का सम्यक प्रकार से पालन करके सिझइ अर्थात् मोहकर्म नष्ट करके सिद्धगति के योग्य बनता है, बुज्झई अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त करके तत्त्ववोध पाता है, मुच्चई अर्थात् भवभ्रमण कराने वाले कर्मो को नष्ट कर मुक्त होता है और परिनिव्वाई अर्थात समस्त उपाधियो से छुटकारा पाकर शान्त हो जाता है। ऐसा सिद्ध, वुद्ध और मुक्त पुरुष समस्त दु.खो का अन्त कर डालता है अर्थात् सब दु.खो से रहित हो जाता है।
प्रथम अन्तक्रिया के लिए शास्त्रकारो ने भरत चक्रवर्ती का उदाहरण दिया है । उनका कथन है प्रथम तीर्थडर भगवान् ऋषभदेव के सबसे ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती पूर्वभव मे लघकर्मी होकर सर्वार्थसिद्धविमान मे गये थे और फिर वहा से च्युत होकर मनुष्यलोक मे भरत चक्रवर्ती हुए तथा केवलज्ञान प्राप्त करके, एक लाख पूर्व तक सयम पाल कर