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________________ " तेरहवाँ बोल-१७५ तृष्णा जीतने में है । हिंसा, असत्य आदि पाप भी तृष्णा से ही होते हैं । तृष्णा मिटाने से यह पाप भी रुक जाते है । इन पापो का रुकना ही आस्रव का निरोध है । आस्रव का निरोध करने से, किस फल की प्राप्ति होती है, यह बतलाया जा चुका है । यहा सिर्फ इतना ही कहना है कि तृष्णा को जीतने के लिए अपनी आवश्यकताए कम कर डालनी चाहिए । आवश्यकताए जितनी कम को जाएगी, -तृष्णा भी उतनी ही कम होती जायेगी । अगर तुम इतना नही कर सकते तो आवश्यक वस्तुओ के अतिरिक्त अनावश्यक वस्तुओ की ही तृष्णा रोको । इससे भी बहुत लाभ होगा । आवश्यक वस्तुओ की तृष्णा से जितनी हानि होती है, उससे कही अधिक हानि अनावश्यक वस्तुओ की तृष्णा से होती है। पहले चौदह नियम चितारने का जो उपदेश दिया जाता था उसका उद्देश्य यही था कि अनावश्यक वस्तुओ की तृष्णा रोकी जाये और आवश्यकताए कम की जाए। ऐसा करने से आत्मा को अनुपम सुख प्राप्त होता है क्रमश. तृष्णा पर विजय प्राप्त की जा सकती है। अतएव अपनी आवश्यकताए घटाओ। ज्यो-ज्यो आवश्यकताए घटाओगे त्यो त्यो तृष्णा पर विजय प्राप्त होती जाएगी और परिणामस्वरूप सुख प्राप्त कर सकोगे। इससे विपरीत आवश्यकताए जितनी बढाओगे तृष्णा भी उतनो ही बढेगी और तृष्णा बढ़ने से दुख भी बढेगा । अतएव अगर सुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो अपनी आवश्यकताए कम करो और तृष्णा को जीतो । तृष्णाविजय ही सुख का एकमात्र राजमार्ग है। प्रत्याख्यान का फल बतलाते हुए भगवान ने कहा है
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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