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________________ १७४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) रखकर श्री उत्तराध्ययनमूत्र मे कहा है - इम च मे अस्थि इमं च नत्थि इम च मे किच्चमिमं अकिच्चं। तमेवमेव लालप्पमाण, हरा हरतीति कहं पमाए ? ॥ अर्थात् -- यह मेरा है और यह मेरा नही है, इस. प्रकार की तृष्णा बनी ही रहती है । यह है और यह नही है, इस प्रश्न का क्या किसी भी दिन समाधान हो सकता है ? एक वस्तु हुई तो उसी के साथ दूसरी वस्तु की आवश्यकता खडी हो जाती है। सुना है, एक आदमी ने नीलाम मे सस्ता मिलने के कारण एक पलग खरीदा । पलग अच्छा था । अत उसके साथ साठ हजार रुपये का नया सामान खरीदा, फिर भी अमुक चीज बाकी रह गई है, ऐसी आवश्यकता बनी ही रही । तब उस आदमो ने विचार किया जिस पलग के पीछे इतना अधिक खर्च करना पड़ रहा है, उसको ही क्यो न निकाल दिया जाये ? आखिरकार प्लग निकाल देने पर ही उसे सतोष हुआ । इस प्रकार एक वस्तु हुई कि उसके साथ दूसरी वस्तु की आवश्यकता खडी हो जाती है । ऐसा होने पर भी तप्णा का त्याग करके सुखी बनने के वदले बहुतेरे लोग तृष्णा मे ही सुख मानते हैं, किन्तु वास्तव मे तृष्णा से सुख का मार्ग ही वन्द हो जाता है। कम से कम तृष्णा होने पर तो सुख मिल ही नहीं सकता। जब किसी वस्तु की इच्छा नही होती तव उस वस्तु मे गति होती है और वह पास आती है। परन्तु जब तृष्णा उत्पन्न होती है तब वह वस्तु दूर भागती है। कहने का प्राशय यह है कि सुख तृष्णा मे नही,
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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