SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवां बोल-१४६ आज भाषा का बहुत दुरुपयोग होता दिखाई देता है । कायर लोग जीभ का जैसा दुरुपयोग करते हैं, वोर पुरुष वैसा दुरुपयोग नही करते । कुत्ते भौकते हैं, वीर सिंह कभी नही भौकता । यह बात दूसरी है कि सिंह गर्जना करता है, मगर वह अपने आप गर्जता है, कुत्तो को भाति दूसरों को देखकर नही । जैसे कुत्ते अपनी वाणी का दुरुपयोग करते हैं उसी प्रकार कायर लोग भी अपनी वाणी का दुरुपयोग किया करते हैं। मगर इस प्रकार वाणी का दुरुपयोग करना योग्य नही है। हमारी जीभ से कैसी वाणी निकल रही है, इस बात का ध्यान आज बहुत कम लोग रखते हैं । उचित तो यह है कि बोलने से पहले प्रत्येक बात पर विवेकपूर्वक विचार कर लिया जाये कि मेरे भाषण में असत्य, भय या क्रोध तो नही है ? 'त सच्चं खु भयव ' अर्थात् सत्य ही भगवान है, इस सिद्धात का ध्यान बोलते समय रखा जाये तो वाणी सार्थक होती है । शास्त्र का कथन है कि वचन को गुप्त रखना चाहिए और यदि बोलने की आवश्यकता ही हो तो क्रोध या भय आदि किसी भी कारण से कठोर अथवा असत्य भाषण नही करना चाहिए । शास्त्र के अनुसार क्रोध के अधीन होकर बोला हुआ सत्य भी असत्य हो है । क्योकि जो क्रोध के अधीन बोलता है वह स्वतन्त्र होकर नही वरन् परतन्त्र होकर बोलता है । स्वाधीनतापूर्वक बोली हुई वाणी ही सही हो सकती है । अतएव सदैव भाषासमिति का ध्यान रखना चाहिए । जीभ के विषय में वैताल कवि ने कहा है : जीभ जोग अरु भोग जीभ ही रोग बुलावे, जिभ्या से जस होय जीभ से आदर पावे ।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy