SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ - सम्यक्त्वपराक्रम (२) चलते समय मनोगुप्ति और वचनगुप्ति का पालन करना चाहिए तथा चलते समय स्वाध्याय वगैरह किसी भी बात की ओर ध्यान न देते हुए इसी बात का सास ध्यान रखना चाहिए कि मेरा पैर कहा पड रहा है ? और मेरे पैर से किसी जीव को आघात तो नही पहुँच रहा है ? इस बात का ध्यान रखने से प्रतिक्रमण करते समय, हुए ईर्यावही पाप का प्रक्षालन हो जाता है | शास्त्र कहते हैं कि चलते समय इस वात का ध्यान रखना चाहिए कि किसो दूसरे की गति कदापि न रुके । जव कीडी की गति का भग करना भी निषिद्ध ठहराया गया है तो फिर मनुष्य की जो पचेन्द्रिय है गति भग करक उसे परतत्रता मे डालना क्या पाप न होगा ? जो आत्मा असवल चारित्रवाला होगा, वह ईर्यासमिति का बराबर पालन करेगा। असवल चारित्रवान् बनने के लिए ईर्यासमिति का पालन करना आवश्यक है । मुनि को ईर्यासमिति के समान भाषासमिति का भी ध्यान रखना चाहिए । कीडो- मक्खी या अन्य जानवरो के साथ वातचीत नही की जाती । बातचीत मनुष्यो के साथ ही की जाती है । अतएव वातचीत करते समय भय, हँसी, क्रोध या अन्य किसी कारण से कठोर भाषा नही बोलना चाहिए । साधुओ के लिए कठोर भाषा बोलने का निषेध किया गया है तो क्या इसका अर्थ यह है कि आपको कठोर भाषा बोलना चाहिए ? कठोर भाषा बोलने से निश्चय और व्यव - हार में आपको भी हानि ही होती है । इतना होने पर भो
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy