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________________ ग्यारहवां बोल-१३७ मे जाना स्वस्थान से परस्थान जाना है । इस परस्थान से आत्मा को फिर स्वस्थान में लाना ही प्रतिक्रमण कहलाता है। आत्मा को इन्द्रियो की प्राप्ति क्षायोपशमभाव के प्रताप से ही हुई है, किन्तु क्षायोपशमिकभाव से प्राप्त इन्द्रियों को आत्मा उदयभाव मे ले आने के लिए तैयार हो जाता है। आत्मा को इस प्रकार न करने का उपदेश देने वाले लोग बहुत ही कम है, फिर भी ऐसा उपदेश देने वालो के उपदेश को आत्मा बहुत कम सुनता है और नाच-गान वगैरह देखने में तथा सुनने में आनन्द मानता है । ऐसे समय आत्मा को विचारना चाहिए कि मुझे जो इन्द्रियो मिली हैं वे औदयिक भाव से नहीं अपितु क्षायोपशमिकभाव से मिली है । ऐसी स्थिति मे मैं उन्हे उदयभाव में डालकर स्वय भी उदयभाव मे क्यो पड़ा हू? हिरन को क्या उपदेश दिया जा सकता है ? उसे बचाने का प्रयत्न करने से तो वह और भागता है, लेकिन वाजे की आवाज सुनकर वह मस्त बन जाता है और पास आ जाता है । मृग नही जानता कि इस राग के पीछे वाण है । इसी प्रकार आत्मा भी विपयो मे फंसा है और वह इतना विचार नहीं करता कि इन विपयो के पीछे मोह का कैसा तीखा बाण है ! इस बात का विचार करके उदयभाव मे गये हुए आत्मा को उदयभाव मे से फिर स्वस्थान में अर्थात् क्षायोपशमिक आदि भावो मे लाना प्रतिक्रमण कहलाता है। आत्मा किस प्रकार विषयादि में पड़ रहा है और किस-प्रकार क्षयोपशमभाव से प्राप्त इन्द्रियो को उदयभाव
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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