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________________ १२२-सम्यक्त्वपराक्रम (२) हो सकती है। अतएव मन को खराब कामो मे नही पिरोना चाहिए । मान लीजिए, किसी मनुष्य को कीमती मोती मिला हो तो क्या वह मामूली मिठाई के बदले उसे दे देगा? अगर नही तो जो मन अनेक जन्म-जन्मान्तरो के अनन्तर मिला है, उस मन को खराब कामो में पिरो देना क्या उचित कहा जा सकता है ? अनेक विध कठिनाइया झेलने के बाद जो मन मिला है, उसकी कीमत समझकर और मन को एकाग्र करके गुरु को वदना की जाये तभी मन का पाना सार्थक कहा जा सकता है । जिस वन्दना का फल यहाँ तक बतलाया गया है कि बँधा हुआ नीच गोत्र कर्म भी वन्दना से क्षीण हो जाता है और उच्च गोत्र का बंध होता है, उस वन्दना के समय भी यदि मन एकाग्र न हुआ तो फिर किस समय होगा ? मगर लोग सत्कार्य मे मन एकाग्र नही करते और यही अधोगति का कारण है। , मन एकाग्र करना ही मन की गुप्ति है, फिर वचन से बहु-मानतापूर्वक श्रेष्ठ अलकार बोलते हुए गुरु को वदना करना कायगुप्ति है। यह सब पच्चीस आवश्यक हुए । इन आवश्यकों की रक्षा करके और वदना के बत्तीस दोष टालकर गुरु को वंदना की जाती है, वही सच्ची वदना है। आज वदना की यह विधि क्वचित् ही दिखाई देती है, अतएव वदनाविधि जानने का और विधिपूर्वक वन्दना करने का प्रयत्न करना चाहिए । इस प्रकार विधिपूर्वक की जाने वाली थोडी भी वन्दना अधिक लाभदायक सिद्ध होती है । जिन लोगो ने विधिपूर्वक युद्ध करने की शिक्षा प्राप्त की है, वे सख्या मे थोडे होने पर भी विधिपूर्वक युद्ध करके
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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