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________________ १००-सम्यक्त्वपराक्रम (२) समय क्रोध भी नहीं करना चाहिए और प्रतिष्ठा मिलने पर अभिमान भी नहीं करना चाहिए। जब कोई नमस्कार करे तो समझना चाहिए कि यह नमस्कार मुझ नही, मेरे समभाव को है । अतएव मुझे तो समभाव ही की रक्षा करना चाहिए । अहमाव, समभाव के विरुद्ध है अतएव अहभाव का तो त्याग करना ही चाहिए । जव मन में बहभाव आये तो समझना चाहिए कि अभी तक मुझमे समभाव नही यआया है। कहने का आशय यह है कि प्रत्येक कार्य में सामायिक की आवश्यकता है अर्थात् समभाव रखने की आवश्यकता है । समभाव के बिना किसी भी कार्य और किसी भी स्थान पर शान्ति नहीं मिल सकती, फिर भले ही वह कार्य राजनीतिक हो या सामाजिक हो । सामायिक होने पर ही मन कार्या मे गान्ति मिल सकती है। जिसमें समभाव होता है उसका हृदय माता के हृदय के समान बन जाता है । सामायिक करने से अर्थात् समभाव धारण करने से जीव को क्या लाभ होता है, इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा ही है कि समभाव धारण करने से अर्थात् सामायिक करने से सावध योग दूर हो जाता है । और जिस सामायिक से सावध योग निवृत्त हो जाता है, वही सच्ची और सफल सामायिक है। ___ यहा यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सामायिक करने से जिस सावध योग की निवृत्ति होती है, वह सावध योग क्या है ? इस सम्बन्ध मे कहा है कम्म सावज्जं ज गरहियं ति कोहाईपो व चत्तारि । सह तेहि जो होउ जोगो पच्चक्खाणं भवइ तस्स ।।
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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