SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ - सम्यक्त्वपराक्रम (२) न हो, इस ध्येय की सिद्धि के लिए मन वचन और काय से- तीनो से करना चाहिए । कहा जा सकता है कि पापकर्मों की गर्दा मन से हो कर ली जाये तो काफी है। गुरु आदि के समक्ष गर्दा करने की क्या आवश्यकता है ? ऐसा कहने वालो से यही कहा जा सकता है कि शास्त्र का वचन अगर प्रमाण मानते हो तो शास्त्र पर विश्वास रखकर, शास्त्र के कथनानुसार ही गर्दा करनी चाहिए । अगर तुम्हे शास्त्र पर विश्वास नही है तो फिर तुमसे कुछ कहना ही वृथा है । शास्त्र में निंदा और गर्दा के बीच बहुत अन्तर वतलाया गया है । गह लघुता प्रकट करने के लिए की जाती है । अगर कोई मनुष्य ऊपर से लघुता दिखलाता है मगर पाप का त्याग नहीं करता तो कहना चाहिए कि वह वास्तव मे लघुता का प्रदर्शन नही करता वरन् ढोग का ही प्रदर्शन करता है । जिसमें सच्ची लघुता होती है वह ग करते हुए विचार करता है कि मेरी आत्मा ने कैसा नीच कृत्य किया है । जिस मनुष्य को सवारी के लिए हाथी उपलब्ध है, वह हाथी को छोडकर यदि गधे पर सवार होता है तो मूर्ख ही कहा जायेगा । इसी प्रकार आत्मा को विचारना चाहिए कि- 'हे आत्मन् । तुझे हाथी पर बैठने के समान शरीर मिला है, तथापि तू गधे पर बैठने के समान नीच कृत्य क्यो करता है ?" इस प्रकार विचार करने से सच्ची ग करने की भावना का उदय होगा और उसी समय आत्मा मे लघुता भी आएगी | ज्योज्यो आत्मा मे लघुता आएगी, त्यो त्यो आत्मा परमात्मा के समीप पहुंचता जायेगा । मैंने जिन ग्रन्थो का अवलोकन किया है, उन सब मे
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy