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२५०-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
कहलाता है।
आत्मा प्रशस्त विनय द्वारा ही सिद्धिगति की माधना कर सकता है और प्रशस्त विनय द्वारा ही समस्त कार्य सिद्ध कर सकता है । मुक्ति प्राप्त करने के लिए, विनय मे भी प्रशस्त विनय की हो आवश्यकता है जो मनुष्य किसी प्रकार के लोभ से या लालच से, कीर्ति अथवा बडप्पन पाने के लिए नम्रता धारण करता है, उसको नम्रता प्रशस्त विनीतता नही कही जा सकती । प्रशस्त विनय वह है जिसमे किसी भी प्रकार का, तनिक भी लोभ या ऐसा कोई अन्य उद्देश्य न ही । इस प्रकार के लोभहीन विनय आदि गुण ही प्रशस्त हैं और वही मोक्ष के साधक है -। जिसमे प्रशस्त विनय होता है, वह यह नहीं सोचता कि यह काम बड़ा है या यह छोटा है । उसकी निगाह मे सभी कार्य एक सरीखे है।
घर के अनेक कामो में से कौन बडा और कौन छोटा है ? कमाई करने को बड़ा काम और भोजन बनाने को छोटा काम समझना क्या भूल नही है ? तुम व्यापार कर रहे हो लेकिन घर पर भोजन न बनाया गया हो तो कितनी कठिनाई उपस्थित हो ? कामो में छोटे-बड़े की कल्पना करके लोग अनेक अनावश्यक दुख बुला लेते हैं । साधुओ के लिए व्याख्यान देना बड़ा काम है या वैयावच्च (वैयावृत्य मुनियो की सेवा ) करना बड़ा काम है ? किसी को छोटा-बड़ा मानने से ही विषमता उ-पन्न होती है । अतएव अपने में जो शक्ति है, उसी के अनुसार काम करना चाहिए और पारस्परिक सहकार से काम लेना चाहिए । कार्य में छोटेबडे का भेद करना उचित नही है।