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चौथा बोल-२४३
कहने का अ शय यह है कि कभी-कभी आत्मा मे ऐसी कठोरता आ जाती है, तथापि आत्मा जितनी जल्दी नम्रता धारण करे, उतनी ही जल्दो सुगति प्राप्त करेगा । प्राचीनकाल के पुरुष धर्मकार्य के लिए कितने नम्र होते थे और धर्मकार्य मे कितना रस लेते थे और उसके लिए कितना उत्सर्ग करते थे, इस बात का विचार करो । आजकल तो किसी युक्ति से धर्मकार्य से बच निकलने मे ही बुद्धिमत्ता समझी जाती है । मगर यह सच्ची बुद्धिमत्ता नही है । हमारी समझ मे सच्चो बुद्धिमत्ता इनमे हैं -
सर जावे तो जावे, मेरा सत्यधर्म नही जावे । सत्य के कारण रामचन्द्रजी, वनफल विनकर खावे ॥मेरा।।
यह तो पुराने जमाने की बात है । मध्य काल मे भी ऐसी अनेक ऐतिहासिक घटनाएं सुनी जाती हैं कि सत्यकर्म की रक्षा के लिए प्राणो तक की परवाह नही की गई । सत्यधर्म की रक्षा करने के लिए सिख शिरोमणि तेगबहादुर ने प्राणो को भी निछावर कर दिया था।
तेगबहादुर की कथा औरगजेब के जम ने की है। औरगजेब बडा ही धर्मान्ध बादगाह था । वह किसी भी उपाय से लोगो को मुसलमान बनाना चाहता था । एक दिन कछ लोगो ने उसे मुसलमान बनाने का उपाय सूझाया। वह उपाय यह था कि अगर लोगो को कष्ट झेलना पडे तो वे घबराकर मुसलमान बन जाएगे । अब प्रश्न हआ कि कौनसा कष्ट पड़ने पर लोग मुसलमान बन सकेगे ? इस प्रश्न के समाधान मे उसे सूझा-दुष्काल के समान और कोई कपट नहीं है । अगर दुष्काल का कष्ट पडे तो लोग जल्दी