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चौथा बोल - २३१
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अर्थात् शिप्य लोग इस विचार से शिल्पकला आदि का शिक्षण लेते हैं कि शिल्पकला के शिक्षण से अपने को तथा अपने कुटुम्बी अथवा आश्रितों को जीवनोपयोगी वस्तुएँ प्राप्त हो सकेगी और इस प्रकार ससार-व्यवहार भलीभाति निभ सकेगा ।
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शिल्पकला मे अनेक कलाओ का समावेश हो जाता है । दर्जी, सुतार, लुहार, सुनार आदि की कलाए शिल्पकला मे समाविष्ट हैं और इसलिए इस प्रकार की अन्यान्य कलाएँ भी शिल्पकला ही कहलाती है ।।
आज अक्षरज्ञान को अधिक महत्व दिया जाता है और पोथियाँ पढाई जाती है । किन्तु कोरे अक्षरज्ञान से क्या जीवन स्वतन्त्र - स्वावलम्बी बन सकता है ? आज तो उलटा यही दिखाई दे रहा है कि कोरे अक्षरज्ञान के शिक्षण मे जीवन परतन्त्र बन रहा है। । जीवन की इस परतन्त्रता का प्रधान कारण शिल्पकला की शिक्षा का अभाव है । जीवन को स्वतन्त्र बनाने मे शिल्पकला की शिक्षा की बडी आवश्यकता है। वस्तुत मच्त्री शिक्षा वही है जो परतत्रता के बन्धनो से आत्मा को मुक्त करती है । 'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति प्रदान करे । मुक्ति, बन्धनो से ही होती है, अतएव परतन्त्रता के बन्धन तोडकर बन्धन- मुक्त करने वाली विद्या ही सच्ची विद्या है ।
जीवन परतन्त्र न बने, इसलिए शास्त्रकारो ने ७२ कलाओ के शिक्षण का विधान किया है । बहत्तर कलाओं मे समस्त कलाओ का समावेश हो जाता है। जिसने बहत्तर कलाओ की शिक्षा ली होगी, वह कभी पराया मुँह नही