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२३०-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
श्रद्धा होगी, वह गुरु और साधर्मी की सेवा करेगा ही। अर्थात् गुरु और साधर्मी की सेवा वही कर सकता है जिसमें धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी। सच्ची श्रद्धा के अभाव मे सेवा-शुश्रुषा करना कठिन है । भर्तृहरि ने भी कहा है
सेवाधर्म परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ।
अर्थात् - सेवाधर्म ऐसा गहना है कि वह योगियो के लिए भी कठिन है । इस प्रकार सेवा करना योगियो के लिए भी अ यन्त कठिन माना गया है। किन्तु जिसमे धर्मश्रद्धा होगा वह किसी कठिनाई का अनुभव किये बिना हो सेवा करेगा और गुरु तथा सहधर्मी का सेवा के पीछे अपना सर्वस्व अपण कर दगा ।
__ गुरु और सहधर्मी किसे कहते है और उन दोनो का आपस मे क्या सम्बन्ध है, इस सम्बन्ध मे पहले कुछ विचार किया जा चुका है । यहा फिर प्रकाश डाला ज ता है।
शास्त्र में गुरु के मुख्य दो भेद किये गये हैं - लौकिक गुरु और लोकोत्तर गुरु । साधर्मी के भी ऐसे ही दो भेद हैं। पहले लौकिक गुरु के विषय मे विचार करें। इससे लोकोत्तर गुरु का भी परिचय मिल जायगा। श्री दशवकालिक सूत्र मे कहा गया है
अप्पणट्ठा परदावा सिप्पाणं वा गिहकारणा । गिहिणो उवभोगट्ठा इहलोगस्सकारणा ॥ जेण बधं वह घोर परियावं च दारुणं ।' सिक्खमाणा अच्छति जुत्ता ते ललिइंदिया ॥
दग० अ० ६, उ० २, गा० १३-१४! .