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चौथा बोल-२२७
नही हो सकता।
मैं तुम्हारे ऊ र महाव्रतो के पालन करने का उत्तरदायित्व नही लादता । मैं यह भी नही कहता कि तुम्हे महावतो का पालन करना ही चाहिए । हाँ, इतना अवश्य कहता ह कि आप श्रावक कहलाते हो तो अणुव्रतो का भलीभाति पालन करो । 'उनके पालन में किसी तरह को कोनाई मत करो । अगर तुम अगुव्रतो का पालन न करो, तुम हिंसक, मिथ्यावादो, चोरी करने वाले और परस्त्रोगामा बन जाओ तो क्या तुम्हारे हाथ में आहार लेना हमारे लिए उचित कहा जा सकता है ? लेकिन हम आहार न ले तो जाएँ कहा ? अतएव विवश होकर हमे आहार लेना पड़ेगा। तथापि वह आहार हमारे उदर मे जाकर किस प्रकार की दुर्भावना उत्पन्न करेगा? और अगर तुम अणुव्रतो का पालन करते होओगे तो तुम्हारे हाथ से दिया आहार हमारे उदर मे पहुचकर कितनी सद्भावना उत्पन्न करेगा? तुम्ह रे अणुव्रतो के पालन को पवित्रता हमारे महाव्रतो मे भी पवित्रता का सचार करेगी । तुम धर्म की दृष्टि से हमारे सहधर्मी हो तो अपने व्रतो का सम्यक् प्रकार से पालन करके, महाव्रतो के पालन मे हमे सहकार दो ।
सहधर्मी की सहायता के बिना जीवन भी नहीं निभ सकता । जीवन के लिए भी अनेको को सहायता की आवश्यकता रहती है । वृक्ष-वनस्पति यो तो मनुष्यो से दूर है, परन्तु विज्ञान का कयल है कि मनुष्य का जोवन वनस्पति को महायता के आधार पर ही टिका हुआ है । मनुष्य समाज ऑक्सीजन हवा पर जीवित है । क्षणभर के लिए