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२२४ - सम्यक्त्वपराक्रम (१)
वाला पुरुष गुरुपद का गौरव नही प्राप्त कर सकता ।
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शास्त्र के अनुसार ज्ञान और चारित्र - दोनो की आवश्यकता है । जिसमे ज्ञान और क्रिया दोनो हैं, वही गुरु बन सकता है । जिसमें ज्ञान होने पर भी क्रिया नही है या क्रिया होने पर भी ज्ञान नहीं है, वह गुरु नही बन सकता । जिस दीपक मे केवल बत्ती होगी या केवल तेल ही होगा, वह प्रकाश नही दे सकेगा । प्रकाश देने के लिए दोनो आवश्यक हैं । इसी प्रकार ज्ञान के अभाव में अकेली क्रिया से या क्रिया के अभाव में अकेले ज्ञान से कल्याण नहीं हो सकता | आत्मकल्याण के लिए दोनो आवश्यक है ।
यह गुरु का स्वरूप हुआ । साराश यह है कि अज्ञानअन्धकार का नाश करने वाला ही गुरु कहलाता है ।
अब प्रश्न उपस्थित होता है कि साधर्मी किसे कहते ? आप धर्म करे किन्तु क्या अकेले से धर्म चल सकता है ? नही । जिस खेत में चने का एक ही पौवा होता है, वह चना का खेत नहीं कहला सकता । जिसमे अनाज के पीधे अधिक होते है. वही अनाज का खेत कहलाता है । यहीं वात धर्म के विषय में भी समझनी चाहिए। धर्म का पालन करने वाले जब अनेक होते हैं तभी धर्म चल सकता है । अनेक मनुष्य धर्म पालने वाले न हो, सिर्फ एक ही मनुष्य किसी धर्म का पालन करे तो इस अवस्था मे धर्म का पालन होना कठिन हो जाता है । कल्पना कीजिए, किसी नगर में सब लोग चोर और लुटेरे वसते हो, कोई नीतिमान् मनुष्य न हो तो तुम्हारा जीवनव्यवहार वहा ठीक-ठीक चल सकता है ? नही । वहा नीतिमान् मनुष्य वसते हों तो तुम्हारा