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२०८-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
की उत्पत्ति होती है । उत्तराध्ययन में कही भगवान् को यह बात सब दार्गनिको को स्वीकार्य है। इसे कोई अस्त्रीकार नहीं करता । भर्तृहरि भी कहते है -
पाशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला । रागग्राहवती वितर्कगहना धैर्यद्रुमध्वंमिनी मोहावरीसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तङ्गचिन्तातटी । तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः॥
कवि कहता है- आगा नामक एक नदी है , इस आशा-नदी मे मनोरथरूपी जल भरा हुआ है। जैसे पानो मे तरगें, उठती हैं उसी प्रकार आणा-नदी के मनोरथरूपो जल में तृष्णा की तरगें उठती है । तृष्णा की ऐसी-ऐसी तरगे उठती हैं कि उनका पार पाना कठिन है । नदी में जैसे मगरमच्छ रहते है, उसी प्रकार आगा-नदी में राग-द्वेष स्पी मगरमच्छ रहते है । जहा तृष्णा होती है वहा राग-द्वेप भी होते ही है। नदी के किनारे पक्षी भी रहते है । इस आशा-नदी के किनारे कपट-वितर्क रूपी बगुला-पक्षी रहते हैं। मागा-तृष्णा के कारण ही झूठ-कपट सेवन करना पड़ता है । नदी मे जव पूर आता है तो वह किनारो के पेड़ों को भी उखाड फेकता है । इसी प्रकार तृष्णा की अधिकता से धैर्य रूपी वृक्ष भी उखड जाता है । कितने ही लोग कहते हैं कि सामायिक में हमारा मन नहीं लगता, मगर जव ताणा बढी हई हो तब मन सामायिक में कैसे लग सकता है ? तृष्णा धैर्य का नाश कर डालती है, और धैर्य के अभाव मे मन का एकाग्र न होना स्वाभाविक ही है। तष्णा का उच्छेद किये विना शाति नही मिलती । जैसे गहरी नदी
मन मालती है।
नदी