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तीसरा बोल- २०७
ने स्वयं ही दुख पैदा कर लिया है । यह ठीक है कि आत्मा अमृत के समान है दुखमय नही किन्तु सुखमय है, फिर भी उसने अपने आपको दुख मे डुबो लिया है । आत्मा स्वभावत दुखमय होता तो उसे सुखी बनाने का उपदेश ही न दिया जाता । अगर दिया जाता तो वह निष्फल होता, क्योकि जो स्वभावतः दुख से घिरा हुआ है उसे दुखमुक्त कैसे किया जा सकता है ? जिसका मूल पहले से ही खराब है उसका सुधार किस प्रकार हो सकता है ? अतएव आत्मा अगर सदा दुःखमय होता तो कर्ममुक्त होने का उपदेश निरर्थक ही जाता लेकिन वास्तव मे ऐसा नही है | आत्मा स्वभावत सुखसागर है । इसीलिए दू खमुक्त होने का उपदेश दिया जाता है । जब मूल शुद्ध होता है और ऊपर से कोई विकार - श्रावरण आ जाता है, तभी उसे दूर करने के लिए उपदेश दिया जाता है । ज्ञानी पुरुष आत्मा को दुःखमय नही मानते, बल्कि उनकी मान्यता तो यह है कि ईश्वर को दुख देने वाला मानना उसे कलक लगाना है अगर ईश्वर ही दुःख देता हो तो उसकी प्रार्थना करने की आवश्यकता क्या है ? वास्तव मे ईश्वर दुःख नही देता और न अदृष्ट या काल ही दुख देता है ।
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लेकिन यह प्रश्न तो अब भी ज्यो का त्यो खडा है कि यदि आत्मा स्वभावत दुखमय नही है, ईश्वर दुख नही देता, अदृष्ट या काल भी दुःख नही पहुचाता तो फिर दुख आता कहा से है ? इस प्रश्न के समाधान मे भगवान् ने इसी उत्तराध्ययन सूत्र मे कहा है कि दुख का मूल कारण आत्मा का तृष्णा नामक विभाव ही है । तृष्णा से दु.ख