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१३८-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
अर्थात्-देवलोक के देवता भी सुखी नही हैं, पृथ्वी का अधीश्वर राजा भी सुखी नही है, सेठ, सेनापति भी सुखी नही है, सिर्फ वीतराग मुनि ही एकान्त सुखी है ।
इस प्रकार ससार के पदार्थो में फसे हुए कोई भी जीव सुखी नही माने गये हैं । वास्तव मे सुखी वही है जो कर्म नष्ट करता है । इसलिए एकान्त रूप से सुखी बनने के लिए अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा करो और कर्मों का नाश करो । जो पुरुष अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा करके कर्मों का नाश करता है, वह इसी भव मे मोक्ष प्राप्त करता है। कर्म शेष रह जाने के कारण अगर इसी भव मे मोक्ष न हो तो तीसरे भव मे मोक्ष होता है । भगवतीसूत्र में प्रश्न किया गया है- 'भगवन् ! दर्शन का उत्कृष्ट आराधक कब मोक्ष जाता है ? भगवान् ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा हैजघन्य उसी भव मे और उत्कृष्ट तीसरे भव में मोक्ष जाता है।' इस उत्तर से स्पष्ट है कि चाहे उसी भव मे मोक्ष हो, चाहे तीसरे भव मे, मगर अनुत्तर धमश्रद्धा व्यर्थ नही जाती। फल चाहे जब मिले किन्तु कोई भी सत्कार्य निष्फल नही होता । गीता में कहा है - न हि कल्याणकरः कश्चित् दुर्गति तात ! गच्छति ।
अर्थात-कल्याणकारी कार्य कदापि व्यर्थ नही जाता। वोया हुआ धर्म-बीज चाहे अभी उगे या देर से, किन्तु उगे बिना नही रहता 19
. आजकल तो धर्म मे भी बनियापन काम में लाया जाता है । जैसे व्यापारी नकद रुपया देकर चीज खरीदने वाले ग्राहक पर प्रसन्न रहता है उसी प्रकार लोग धर्म के
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