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पहला बोल-१३७
साधु-साध्वी के चरणों में झुकते हो। साधु-साध्वो अगर हार या माला पहनने लगें तो तुम उन्हे नमस्कार करोगे? नही । अतएव तुम संसार के सुख को भी दुःख ही समझो। साधुओ की तरह ससार की चीजों का त्याग न कर सको
तो कम से कम इतना तो मानो कि समार के पदार्थ सुग्व, दायी नही, दुखरूप हैं। और ऐसा मानकर सोने-चादी आदि के लिए धर्म का त्याग मत करो।
तात्पर्य यह है कि संवेग से अनुतर धर्म पर श्रद्धा उत्पन्न होती है अनुत्तर धर्मश्रद्धा से अनन्तानुबधी कषायों का नाश होता है और इससे नवीन कर्मों का बध नहीं होता। जब नये कर्मो का बध नही होता और पुराने कर्मो का क्षय हो जाता है तो आत्मा सिद्ध, बुद्ध मुक्त होकर समस्त दु खो से रहित बन जाता है । इसलिए सवेग मे उद्योग करो । उन्मार्ग में आरूढ होकर तो अनेको बार कष्ट सहन किये हैं परन्तु सन्मार्ग में आरूढ होकर एक बार भी कष्ट भोग लोगे तो सदा के लिए कष्ट-रहित बन जाओगे अतएव ससार के सुख को भी दुःख ही मानो और संसार के दुःख तथा सुख दोनो से ही मुक्त होने का प्रयत्न करो।
ससार मात्र हेय है फिर चाहे वह मत्सग हो या दु.सग हो। लेकिन जब दु सग का त्याग न हो सकता हो तो सत्सग करना आवश्यक और आदरणीय है । इसी प्रकार कर्म मात्र त्याज्य है, फिर चाहे वह सातावेदनीय हो । कर्म दुख रूप ही है । ससार के सर्वश्रेष्ठ सुख भोगने वाले देवो को भी भगवान् ने सुखी नही माना । उन्होने कहा है - ण हि सुही देवता देवलोए, ण हि सुही पुढवीवई राया। ण हि सुही सेठसेणावई, एगत सुही मुणी वीयराई ।।