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१३२ - सम्यक्त्वपराक्रम (
रूप है और देव कर्म से विमुक्त नही हैं, अत उन्हें भी 'दुखी कहा है । यह बात अलग है कि सातावेदनीय कम के उदय से उन्हे कर्मों का दुख जान नही पडता, परन्तु शुभ या अशुभ कभ, दुख के हो कारण है और इसी कारण उन्हे भी दु.खी कहा गया है ।
गले मे सेर-दो सेर लोहा लटका लिया जाये तो दुःख 'प्रतीत होगा, किन्तु उतने ही वजन का सोने का हार गले मे पहन लिया जाये तो दुख नही मालूम होगा । इसका कारण यह है कि तुम्हे सोने के प्रति अनुराग है, अन्यथा वजन की दृष्टि से तो सोना और लोहा समान ही हैं । फिर भी सोने के प्रति अनुराग होने के कारण लोग उसका भार वहन करते है । यह बात एक उदाहरण द्वारा समभाता हूं -
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एक सुखी सेठ था । उसके एक सुशील और विनीत 'पुत्र था । माता-पिता को वह अत्यन्त प्रिय था । युवावस्था 'आने पर एक रूपवती कुलीन कन्या के साथ उसका विवाह 'किया गया । विवाह के पश्चात् उसका गृहससार चलने 'लगा । बहू भी घर का काम काम करती और सास-ससुर के प्रति विनयपूर्वक व्यवहार करती थी । पर उसके मन मे यह अभिमान रहता था कि मै सम्पन्न घर की कन्या हूं 'और मैंने मायके में यहाँ की अपेक्षा अधिक सुख भोगे है । 'भीतर ही भीतर इस प्रकार का अभिमान होने पर भी ऊपर से वह सभी के प्रति सद्व्यवहार करती थी ।
एक दिन पिता और पुत्र जीमने बैठे थे । उस समय सेठानी ने अपनी बहू से कहा- 'बहू' अमुक चीज पीसनी है, जरा सिला और लोढा तो ला दे । बहू विचार करने