________________
१३० - सम्यक्त्वपराक्रम ( १ )
- जेल नही वरन् महल बन जाता है अर्थात् ऐसे लोग जेल से भी आनन्द का ही अनुभव करते है । इस प्रकार कारण हो तो कार्य होता ही है । अगर कोई मनुष्य कार्य का निवारण करना चाहता है तो उसे कारण का निवारण पहले करना चाहिये । इस कथन के अनुसार मिथ्यात्व को हटाने की इच्छा रखने वाले को पहले अनन्तानुबन्धी कषाय हटाना चाहिये । जिसमे वह कषाय रहेगा, उसमे मिथ्यात्व भी रहेगा । अनतानुबन्धी कषाय जाये तो मिथ्यात्व भी नही रह सकेगा ।
Į
7
जब मिथ्यात्व नही रह जाता तभी 'दर्शन' की आराचना होती है । जब तक मिथ्यात्व है तब तक दर्शन की भी आराधना नही हो सकती । रोगी मनुष्य को चाहे जितना उत्कृष्ट भोजन दिया जाये, वह रोग के कारण शरीर को पर्याप्त लाभ नही पहुँचा सकता, बल्कि वह रोगी के लिये अपथ्य होने से अहितकर सिद्ध होता है । अतएव भोजन को पथ्य और हितकर बनाने के लिये सर्वप्रथम शरीर मे से रोग निकालने की आवश्यकता रहती है । इसी प्रकार जब तक आत्मा मे मिथ्यात्व रूपी रोग रहता है, तब तक आत्मा दर्शन की आराधना नही कर सकता । जब मिथ्यात्व का कारण मिट जायेगा और कारण मिटने से मिथ्यात्व मिट जायेगा तभी दर्शन की आराधना हो सकेगी । मिथ्यात्व मिटाकर दर्शन की उत्कृष्ट आराधना करना अपने ही हाथ की बात है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ न रहने से मिथ्यात्व भी नही रहेगा और जब मिथ्यात्व नही रहेगा तो दर्शन की आराधना भी हो सकेगी । अनन्तानुबन्धी क्रोधादि को दूर करना भी अपने ही हाथ की
1