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पहला बोल-१२६ उत्पन्न होती है वह सम्यग्दृष्टि बन जाता है और सम्यग्दृष्टि के विषय मे शास्त्र में कहा हैसम्मत्तदंसी न करेइ पावं ।
। -श्री आचाराग सूत्र . . अर्थात् सम्यग्दृष्टि पाप नही करता है । चौथे गुणस्थान से लगाकर चौदहवे, गुणस्थान तक के जीव सम्यग्दृष्टि' माने जाते हैं और जो सम्यग्दृष्टि बन जाता है वह नवीन पाप नहीं करता है । इस प्रकार अनुत्तर धर्म की श्रद्धा से नये पापकर्मो का बघ रुक जाता है । अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा होने से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया तथा लोभ नहीं रह पाते और जब अनन्तानुवन्धी क्रोध आदि नहीं रह पाते। तो तत्कारणक (उनके कारण बन्धने वाले) पापकर्म नही बधते । इसका कारण यह है कि कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । कारण ही न होगा तो कार्य कैसे होगा? कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता। __इसी तरह कारण से ही मिथ्यात्व उत्पन्न होता है और जब मिथ्यात्व होता है तभी नये कर्मों का वन्ध भी होता है । ससार मे मिथ्यात्व किस कारण से है ? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व का कोई न कोई कारण अवश्य है, इसीलिये मिथ्यात्व है । मिय्यात्व का कारण हट जाने पर मिथ्यात्व भी नहीं टिक सकता। जिसे जेल में जाने की इच्छा नहीं होगी, वह जेल में जाने' के कार्य नहीं करेगा । जो जेल जाने के काम करेगा उसे इच्छा न होने पर भी जेल जाना ही पडेगा । यह बात दूसरी है कि कोई जेल के योग्य काम न करे फिर भी उसे जेल जाना पडे, मगर इस प्रकार जेल जाने वालो के लिए जेल,'.