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पहला बोल-१२७
दृढता और सहनशीलता थी । तो फिर हम साधुओ को कितनी धर्मदृढता और सहिष्णुता रखनी चाहिए ? और तुम श्रावको को भी कितना दृढधर्मी और सहिष्णु बनना चाहिए? इस बात पर जरा विचार कीजिये । अगर हम साधुओ में पवित्रता होगी तो तुम मे भी पवित्रता आये बिना न रहेगी। कामदेव श्रावक में अटल-अचल धर्मश्रद्धा होने के कारण धर्म से विचलित नही हुआ । यही नही, उसने देव को भी पिशाच से पुन. देव बना दिया ।
तुम्हारे हृदय मे जब धर्म के ऊपर इस प्रकार की श्रद्धा उत्पन्न हो तो समझ लेना कि तुम अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया और लोभ से छुटकारा पा चुके हो और तुम्हारे भीतर धर्मश्रद्धा तथा सवेग जीवित और जागृत हो गया है । जीवन मे धर्मश्रद्धा और संवेग को मूर्त रूप देने का यह अपूर्व अवसर मिला है, अतएव इस अवसर का सदुपयोग कर लोगे तो तुम्हारा कल्याण होगा ।
यह बतलाया जा चुका है कि सवेग का अर्थ मोक्ष की अभिलाषा करना है । जिसमें मोक्ष की अभिलाषा होगी वह कार्यकारणभाव का खयाल रखकर कार्य भी उसी के अनुसार करेगा अर्थात विपरीत कार्य नही करेगा। मुमुक्ष विपरीत कार्य करेगा ही किसलिये ? गेहूं को इच्छा रखने वाला 'किसान खेत मे बाजरा बोएगा तो उसे अभीष्ट फल कैसे मिल सकेगा ? इसी प्रकार मोक्ष से विपरीत कार्य करने वाला मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकता है ? जैसे फल की इच्छा हो कार्य भी वैसा ही करना चाहिये।
सूर्य प्रकाश देता है परन्तु उस प्रकाश मे सब अपनीअपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं और जैसा काम