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२-सम्यक्त्वपराक्रम (१) भी प्रकट है कि प्रस्तुत सूत्र भद्रबाहु स्वामी से पहले की रचना है और वह इसे प्रमाणभूत मानते थे । इसके अतिरिक्त उन्हे इस सूत्र के प्रति प्रेमभाव भी था, इसी कारण उन्होने इस पर नियुक्ति की रचना की और अपना सूत्रप्रेम प्रकट किया है। अलबत्ता भद्रबाह स्वामी के विषय मे मतभेद है कि किन भद्रबाहु स्वामी ने नियुक्ति की रचना की है ? लेकिन अगर इस सूत्र के नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी चार ज्ञान और चौदह पूर्वो के धारक हो और उपलब्ध नियुक्ति उनकी ही रचना हो तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उन्होने भी यह सूत्र प्रमाणभूत माना है। इससे यह भा स्पष्ट है कि प्रस्तुत सूत्र अनेक सूत्रो मे से उद्धृत और महापुरुषो की वाणी का सकलन है।
नियुक्ति के पश्चात् इस सूत्र पर चूणि और अनेक सस्कृत टीकाएँ भी रची गई है । सुना जाता है कि इस सूत्र की ५६ टीकाएँ लिखी गई हैं । इससे ज्ञात होता है कि भद्रबाहु के परवर्ती आचार्यों ने भी इसे प्रमाणभूत माना है और इसे जनता के लिए विशेष उपयोगी तथा उपकारक समझ कर ही इस पर इतनी टीकाएँ लिखी हैं। इन सब बातो पर विचार करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उत्तराध्ययनसूत्र प्रमाणभूत और अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
प्रस्तुत सूत्र का नाम 'उत्तराध्ययन' क्यो पडा ? यह भी विचारणीय है। 'उत्तर' शब्द अनेकार्थवाचक है, परन्तु यहाँ 'क्रम' अर्थ मे विवक्षित है। एक कार्य के बाद जो दूसरा कार्य किया जाता है वह उत्तर कार्य कहलाता है अर्थात् पिछले कार्य को 'उत्तर' कार्य कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र आचा