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* सम्यग्दर्शन द्रव्य, गुण, पर्याय स्वरूपको निश्चय करता है। अरिहन्तको जानते हुये यह प्रतीति करता है कि "ऐसा हो पूर्ण स्वभाव है, ऐसा ही मेरा स्वरूप है" अरिहन्तके आत्माको जानने पर अपना आत्मा किस प्रकार जाना जाता है, इसका कारण यहाँ बतलाते हैं। वास्तवमें जो अरिहन्तको जानता है वह निश्चय ही अपने प्रात्माको जानता है क्योंकि दोनोंमें निश्चयसे कोई अन्तर नहीं है। अरिहन्तके जैले द्रव्य, गुण, पर्याय हैं वैसे ही इस आत्माके द्रव्य गुण, पर्याय हैं। वस्तु, उसकी शक्ति और उसकी अवस्था जैसी अरिहंतदेवके है वैसी ही मेरे भी है। इसप्रकार जो अपने पूर्ण स्वरूपकी प्रतीति करता है वही अरिहन्तको यथार्थतया जानता है। यह नहीं हो सकता कि अरिहन्त के स्वरूपको तो जाने और अपने आत्माके स्वरूपको न जाने। V
यहाँ स्वभावको एकमेक करके कहते हैं कि अरिहन्तका और अपना आस्मा समान ही है, इसलिये नी अरिहंतको जानता है वह अपने आत्माको अवश्य जानता है और उसका मोह क्षय हो जाता है। यहाँ पर "जो अरिहंत को जानता है वह अपने आत्माको जानता है" इसप्रकार अरिहन्तके आत्ता के साथ ही इस आत्माको क्यों मिलाया है, दूसरेके साथ क्यों नहीं मिलाया ? "जो जगत् के आत्माओंको जानता है वह निजको जानता है। ऐसा नहीं कहा, परन्तु "जो अरिहन्तके आत्माको जानता है वह अपने आत्माको जानता है। ऐसा कहा है, इसे अब अधिक स्वरूपमें कहने हैं-"अरिहन्तका स्वरूप अंतिम तापमान को प्राप्त स्वर्णके स्वरूप की भॉति परिस्पष्ट (सव तरहसे स्पष्ट) है। इसलिये उसका ज्ञान होने पर सर्व श्रात्माका ज्ञान हो जाता है।"
जैसे अन्तिम तापसे तपाया हुआ सोना विल्युल खरा होता है उसी प्रकार भगवान अरिहन्तका आत्मा द्रव्य, गुण, पर्यायमे मंपूर्णनया शुद्ध है। प्राचार्यदेव कहते हैं कि हमें तो आत्मामा शुद्ध-स्वस्प नलाना है, विकार आत्माका स्वरुप नहीं है आत्मा विकार रहित शुद्ध पूर्ण वरूप है यह बवाना है और इस शुद्ध आत्मस्वरपके प्रतिषि समान श्री अरि